Tuesday 27 March 2012

भँवरा

कली के फूल बनते ही

भँवरा आवारा हो जाता है

वो फूल भी बेचारा तब

बेसहारा हो जाता है

 

भँवरे को तो कली

मिल जाती है नसीब से

फूल बेबस कहाँ जाए

मोहब्बत जो की हो रकीब से

 

नई कली भी भँवरे को

ज्यादा नहीं आती है रास

कुछ पलों का याराना फ़िर

छोड़ देता है वो उसका साथ

 

हर भँवरा यहाँ बेवफ़ा है

चाहत भी उसकी , एक छल है

वफ़ा करता है फूल मुरझाने तक

निभाता वफ़ा वो हर पल है

 

मेरी हालत भी “जीत” फूल सी है

दगा हर कदम पे खाई है

“संगीत” से करके प्रीत “जीत”

अज़ब सी सज़ा पाई है......

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