कली के फूल बनते ही
भँवरा आवारा हो जाता है
वो फूल भी बेचारा तब
बेसहारा हो जाता है
भँवरे को तो कली
मिल जाती है नसीब से
फूल बेबस कहाँ जाए
मोहब्बत जो की हो रकीब से
नई कली भी भँवरे को
ज्यादा नहीं आती है रास
कुछ पलों का याराना फ़िर
छोड़ देता है वो उसका साथ
हर भँवरा यहाँ बेवफ़ा है
चाहत भी उसकी , एक छल है
वफ़ा करता है फूल मुरझाने तक
निभाता वफ़ा वो हर पल है
मेरी हालत भी “जीत” फूल सी है
दगा हर कदम पे खाई है
“संगीत” से करके प्रीत “जीत”
अज़ब सी सज़ा पाई है......
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