यह ब्लोग मेरी कविताओं और गज़लों का ठिकाना है | मैनें अपने कॉलेज के समय लिखी रचनाओं को इस ब्लोग पर उतारा है | अब भी निरंतर सक्रियता से लिखने में प्रयासरत हूँ | कृपया पढ़ने के बाद टिप्पणी (comment) अवश्य लिखें....
Monday 17 December 2012
Tuesday 27 March 2012
इम्तिहान
आज मेरा था इक इम्तिहान
किया गुड़गाँव से दिल्ली प्रस्थान
पहुँचा जब परीक्षा केंद्र
तब आई मेरी जान में जान
क्यूंकि
एक तो मैं कुछ लेट था पहले
फ़िर सेंटर ढूँढने में बड़े पापड़ बेले
इक अंकल मिले अजीब
मैं गया उनके करीब
पूछा “अंकल कहाँ का है ये पता ?”
बोले “लिख्या के है पढ़ के बता “
मैंने कहा -अंकल जी लिखा है “लोनी“
वो बोले –बेटा मन्ने तो पतो कोनी .....
बेटा ! मैं तो हूँ हरियाणे का
तेरे किसी काम नी आणे का
पहले तो थोड़ा गुस्सा चढा
फ़िर मैं थोड़ा आगे बढ़ा
वहाँ एक युवती दिखी
वो बोली –"मे आई हेल्प यू ?"
मैं बोला –"आई विल मैनेज ,थेंक्यू ......."
१० मिनट पहले की मेट्रो की याद आई
जब एक भाई की तबियत से हुई पिटाई
परीक्षा शुरू होने में १५ मिनट बचे थे
उस टाइम घड़ी में सवा दस बजे थे
“भैया कहाँ जाओगे ? मैं छोड़ दूँ ...”
एक बूढ़े ने टेर लगा थोड़ा दम लिया
मैंने निराशा से कहा वापस गुड़गांव
पेपर तो कब का शुरू हो लिया ....
फ़िर भी
मैंने उसे पता बताया
उसने थोड़ा दिमाग लगाया
तेज़ी से रिक्शा दौड़ाया
३ मिनट में सेंटर पहुंचाया
मैं देखकर हैरान था और था कुछ परेशान
दस रुपये देकर कहा रहेगा आपका अहसान
बूढा बोला -अहसान गया भाड़ में
नोट निकालो पचास का .....
सुबह-सुबह बोहनी का टाइम है
क्या फायदा बकवास का
मैंने कहा थोड़ी सी तो दूरी थी
रिक्शे में आना मेरी मजबूरी थी
वो बोला परीक्षा भी तो ज़रूरी थी
इतने ही लगेंगे ये मेरी मजदूरी थी ...
आज का दिन भी क्या दिन था , हे भगवान
इससे अच्छा तो सोता घर में चद्दर तान
जीतने चला था जंग सरकारी
हो गए मेरे फिसड्डी हाल
बन के रह गया मैं
"ऑफिस-ऑफिस" का "मुसद्दी लाल"
भँवरा
कली के फूल बनते ही
भँवरा आवारा हो जाता है
वो फूल भी बेचारा तब
बेसहारा हो जाता है
भँवरे को तो कली
मिल जाती है नसीब से
फूल बेबस कहाँ जाए
मोहब्बत जो की हो रकीब से
नई कली भी भँवरे को
ज्यादा नहीं आती है रास
कुछ पलों का याराना फ़िर
छोड़ देता है वो उसका साथ
हर भँवरा यहाँ बेवफ़ा है
चाहत भी उसकी , एक छल है
वफ़ा करता है फूल मुरझाने तक
निभाता वफ़ा वो हर पल है
मेरी हालत भी “जीत” फूल सी है
दगा हर कदम पे खाई है
“संगीत” से करके प्रीत “जीत”
अज़ब सी सज़ा पाई है......
Thursday 15 March 2012
जश्न
कल जख्म था जो अभी भरा नहीं
पर अहसास-ए-दर्द भी अब रहा नहीं
थोड़ी खुशी मिली तो राहत मिली
“आप अच्छे हो” सुनकर बाँहें खिली
जाने क्यूँ उन्हें कुछ अलग लगा ?
शायद दिखावा पसन्द है वो
तभी तो उन्हें कुछ अलग लगा
खैर,
जो भी हो मन तो खानाबदोश है
हर दम भटकता रहता है
सुकून तो मिलता है तारीफ़ पाकर
फ़िर भी ये डरता रहता है
हकीकत तो मन की परतों के
उघड़ने पर ही सामने आती है
“जी-ए-जीत” भी कुछ कम नहीं
पर अहसास-ए-दर्द भी अब रहा नहीं
थोड़ी खुशी मिली तो राहत मिली
“आप अच्छे हो” सुनकर बाँहें खिली
जाने क्यूँ उन्हें कुछ अलग लगा ?
शायद दिखावा पसन्द है वो
तभी तो उन्हें कुछ अलग लगा
खैर,
जो भी हो मन तो खानाबदोश है
हर दम भटकता रहता है
सुकून तो मिलता है तारीफ़ पाकर
फ़िर भी ये डरता रहता है
हकीकत तो मन की परतों के
उघड़ने पर ही सामने आती है
“जी-ए-जीत” भी कुछ कम नहीं
परतें और गहराती जाती है
परतें और गहराती जाती है ..................
और घनी होती चली जाती है...................
ज़ख्म
ज़ख्म बहुत गहरा है
पहले नीला अभी हरा है
पकने पर ये सुनहरा है
हर पल ज़ख्म रंग-भरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है .......
कितना रंगीन है ये ज़ख्म
करता गमगीन है ये ज़ख्म
हकीकत में संगीन है ये ज़ख्म
शायद ये सिरफ़िरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है.......,....
कभी यादों की बारातों से
कभी इश्क की मातों से
कभी दिल की टूटी बातों से
हर बार ये ज़ख्म उभरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है.........
क्या ज़ख्म दर्द की पहचान है ?
या ज़ख्म दर्द-ए-दास्तान है ?
पर मेरे लिए तो मेरा ज़ख्म
"जीत" कर भी हार का पैगाम है.
ज़ख्म जिताकर हराने का मोहरा है......
ज़ख्म बहुत गहरा है..........
जो अब तलक नहीं भरा है........
ज़ख्म बहुत गहरा है.........
पहले नीला अभी हरा है
पकने पर ये सुनहरा है
हर पल ज़ख्म रंग-भरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है .......
कितना रंगीन है ये ज़ख्म
करता गमगीन है ये ज़ख्म
हकीकत में संगीन है ये ज़ख्म
शायद ये सिरफ़िरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है.......,....
कभी यादों की बारातों से
कभी इश्क की मातों से
कभी दिल की टूटी बातों से
हर बार ये ज़ख्म उभरा है
ज़ख्म बहुत गहरा है.........
क्या ज़ख्म दर्द की पहचान है ?
या ज़ख्म दर्द-ए-दास्तान है ?
पर मेरे लिए तो मेरा ज़ख्म
"जीत" कर भी हार का पैगाम है.
ज़ख्म जिताकर हराने का मोहरा है......
ज़ख्म बहुत गहरा है..........
जो अब तलक नहीं भरा है........
ज़ख्म बहुत गहरा है.........
काफ़िर....
जब थामे वो अश्कों को
वक्त हो जाता है " हसीं "
दे एहसास अपनेपन का
अश्क हो जाता है " हँसी "
भूलना चाहता हूँ उसको
पल पल भीगी " पलकें लिए "
लाख कोशिश कर मैं हारा
भुला ना पाया इक "पल के लिए "
इस इश्क के जहाँ में
शायद " काफ़िर " हो गया हूँ
कभी लगता है मैं ज़ुदा हूँ
या उस "का फ़िर " हो गया हूँ........................
शायद .... शायद..... हाँ..
वक्त हो जाता है " हसीं "
दे एहसास अपनेपन का
अश्क हो जाता है " हँसी "
भूलना चाहता हूँ उसको
पल पल भीगी " पलकें लिए "
लाख कोशिश कर मैं हारा
भुला ना पाया इक "पल के लिए "
इस इश्क के जहाँ में
शायद " काफ़िर " हो गया हूँ
कभी लगता है मैं ज़ुदा हूँ
या उस "का फ़िर " हो गया हूँ........................
शायद .... शायद..... हाँ..
"इल्तिज़ा"..........मेरे दिल की ...........
बूँद-बूँद बरसे बदरा
बीच-बीच आती फुहार
छेड़खानी करती मुझसे
जैसे हूँ मैं उसका पहला प्यार..........
गुदगुदी सी होती थी तब
जब छूती थी वो मेरे तन को
तन जाते थे रोम स्पन्दन से
हिला देते थे मेरे मन को............
चूमती गिरती बूँदें
कपोल से अधर तलक
भीनी भीनी महक लिये
बरस रहा ज़मीं पे फ़लक ...........
कर रहा था शांत जैसे
आसमाँ ज़मीं की तपिश
देखकर मन बाँवरा
कर रहा गुज़ारिश...........
क्यूँ न तू आये?
क्यूँ न तू छाये?
क्यूँ तू रह रह कर?
यूँ मुझे सताये?............
बन के कारे प्रेम घन
मन में मेरे बस जा
कर दे शीतल हर इक कोना
सुन ले मेरी "इल्तिज़ा".....................
सुन ले मेरी "इल्तिज़ा".....................
सुन ले मेरी "इल्तिज़ा".....................
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