छह मास का सलाम कर
अपनी मंज़िल की डगर
पूर्णिमा को देखे बिना चला
तय करने एक लम्बा सफ़र
तन्हा - तन्हा सफ़र कटा
आखिर मिला,
एक अनजान ,अजनबी ,
मगर हसीं हमसफ़र
हमसफ़र 'विद' शीतलहर
वो था शायद जयपुर शहर
जब पहली बार मिली नज़र
समय बीता नज़रें बढ़ीं
लेकिन बढ़ीं न नज़दीकी
छुप छुप कर शरमा कर 'शर्मा' पर
मारे नज़रों से कातिल शर
तभी लगा मुझे मानो
टूट पड़ा कोई कहर
देखता रहा चोर निगाहों से
उठती मन में उमंग तो कभी लहर
स्वप्न संसार में आगाज़ हुआ
ख्याली पुलों के निर्माण का
आखिर मन ने कहा
बस ! ठहर !
लेकिन दिल की लगी में
क्या बयां करूं 'जीत'
पता ही नही चलता
तभी तो अंग्रेज कवि ने
क्या लिखा था खोल दिल का 'शटर'
प्यार न जाने बरस महीना
ऋतु , घंटा मौसम और पहर ........
Very convincing journey of imagination...
ReplyDeletekeep it up...