Tuesday 8 October 2013

**जल से हम कल बनायेंगे**

मदमस्त पवन, घनघोर घटा,
छाई बदली, सूरज को हटा ।
रिमझिम-रिमझिम बरसे बदरा,
तपती धरा पे कतरा-कतरा । 

सौंधी-सौंधी महक लिए,
मिट्टी जल संग बहने लगी,
नाले से बनकर नदी जल वो,
मन ही मन बूँद कहने लगी ।

सागर से उठी बादल मैं बनी,
संग पवन के मैं इठला के उड़ी ,
प्यासी धरती की तपन को देख,
बेबस ही बस मैं बरस पड़ी ।

अब बहती हूँ धारा बनकर,
नदियों में कल-कल-कल-कल कर,
निर्झर से बहती मैं झर-झर ,
लेती हूँ मैं सबका मन हर । 

मैं सुन्दरता इस धरती की,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति की,
मुझ बिन सूना संसार लगे ,
मुझ बिन कोई इक पग न चले । 

तो प्रण करो संकल्प ये लो ,
वारि न व्यर्थ बहायेंगे ,
बूँद-बूँद संचित कर के,
जल से हम कल बनायेंगे । 

जल से हम कल बनायेंगे । 

जितेन्द्र *जीत*

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